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नारी और समाज
हां अब…. देह विहीन उसकी आत्मा सुकून से लौट सकेगी अपने घर!

कितनी रातें दर्द से भरी, कितने दिन वेदना से घिरे, सब नोच गए वो वहशी सरफिरे। क्या उसकी मुस्कुराहट ही थी उसका पाप? या उसका यूं स्वछंद घूमना ना आया उनको रास?

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लक्ष्मी अग्रवाल कहती हैं, मेरे सपने अभी जिंदा है क्योंकि मैं अभी भी जिंदा हूं

लक्ष्मी अग्रवाल की कहानी के माध्यम से, फिल्म छपाक में एसिड से पीड़ित लड़कियों के दर्द और संघर्ष को नजदीक से महसूस किया जा सकता है।

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सिर्फ ‘बाहर वालों’ को ही सज़ा क्यों मिलती है?

सबने बड़े आराम से कह दिया, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”, पर कौन बचाए हमें उससे, जो हिफाज़त और प्यार के नाम पर, रूढ़िवाद की फॉंसी चढ़ा दे?

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यहां सिसकियों का कोई मोल नहीं …

वे लोग कैसे जानेंगे जो इंसानियत के पुतले बनकर, सिसकियों को नाटक कहते हैं, ऐसे लोगों से करती हूं निवेदन, हम हर उस शख्स का करें उत्साहवर्धन!

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जब हम निर्भया केस के फ़ैसले पर खुशी मना रहे थे, तब भी एक बेटी मदद की गुहार लगा रही थी

सज़ा दी क्यों जाती है? ताकि उस अपराध को करने वाले और उसे करने की सोचने वाले हर इंसान के मन में क़ानून का डर हो और वो फिर कभी ऐसी कोशिश ना करे।

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निर्भया केस में एक माँ का अथक संघर्ष और हमारी दंड व्यवस्था का न्याय

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि, निर्भया केस ने, जो जागरूकता की मशाल जलाई, जितना लड़कियों को आन्दोलित किया, उतना और किसी केस में सम्भव नहीं हो पाया।

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