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कथा और कविता
तुम क्यों अपने दिल की नहीं कहतीं?

कैसे स्त्रियाँ बस अपने लिए नहीं पर अपनों के लिए जीती चली जाती हैं, क्यों ये कभी अपने मन की नहीं करतीं, क्यों कभी अपने दिल की नहीं कहतीं?

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ननद रानी, जिनके घर शीशे के होते हैं वो…

संचिता जब भी किसी बात के लिए पूछती, तो सास का जवाब यही होता कि मेरी बेटी की तो जिंदगी बर्बाद हो रही है और इसे अपनी ही पड़ी है।

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शबरी सी भक्त हूँ और दुर्गा सी सशक्त हूँ…

शबरी सी भक्त हूँ, दुर्गा सी सशक्त हूँ। मेरे नाम अनेक, रूप अनेक, मैं औरत हूँ, हाँ मैं नारी हूँ, शक्ति मेरी अपार मैं महिला अवतारी हूँ।

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चल ना सहेली, फिर से बचपन जी लेंगे…

चल भी अब कितना इंतज़ार करेंगे, कब तक शादी और परिवार में ही फंसे रहेंगे। चल ना सहेली, फिर से अपना बचपन जी लेंगे।

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सिर्फ बाबुल के घर से ही विदा नहीं होती हैं बेटियाँ…

कुछ बेटियाँ कर दी जाती हैं विदा, इज्जत की खातिर। उतार देते हैं अपने ही मौत के घाट, कर दी जाती हैं विदा इस संसार से। 

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अपनी किस्मत के साथ ऐसा समझौता मुझे मंज़ूर था…

पिता का भी अभी पंद्रह दिन पहले देहांत हुआ था, कार एक्सीडेंट में। जिस कार से एक्सीडेंट हुआ वो सेठ रत्नदास की थी जो कि आज निशा के ससुर थे। 

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