कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
कैसे स्त्रियाँ बस अपने लिए नहीं पर अपनों के लिए जीती चली जाती हैं, क्यों ये कभी अपने मन की नहीं करतीं, क्यों कभी अपने दिल की नहीं कहतीं?
संचिता जब भी किसी बात के लिए पूछती, तो सास का जवाब यही होता कि मेरी बेटी की तो जिंदगी बर्बाद हो रही है और इसे अपनी ही पड़ी है।
शबरी सी भक्त हूँ, दुर्गा सी सशक्त हूँ। मेरे नाम अनेक, रूप अनेक, मैं औरत हूँ, हाँ मैं नारी हूँ, शक्ति मेरी अपार मैं महिला अवतारी हूँ।
चल भी अब कितना इंतज़ार करेंगे, कब तक शादी और परिवार में ही फंसे रहेंगे। चल ना सहेली, फिर से अपना बचपन जी लेंगे।
कुछ बेटियाँ कर दी जाती हैं विदा, इज्जत की खातिर। उतार देते हैं अपने ही मौत के घाट, कर दी जाती हैं विदा इस संसार से।
पिता का भी अभी पंद्रह दिन पहले देहांत हुआ था, कार एक्सीडेंट में। जिस कार से एक्सीडेंट हुआ वो सेठ रत्नदास की थी जो कि आज निशा के ससुर थे।
अपना ईमेल पता दर्ज करें - हर हफ्ते हम आपको दिलचस्प लेख भेजेंगे!
Please enter your email address