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कथा और कविता
लक्ष्मी से द्रौपदी तक सफर मैंने तय किया…

लक्ष्मी से सीता, सीता से द्रौपदी का सफर मैंने हर दौर में यहाँ है जिया, टूटी गर तलवार बनूंगी मैं दोधारी, ये प्रण मैंने कर लिया।

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उम्र के ऐसे पड़ाव में मिली हो, पर मिली तो सही…

लड़खड़ाते कदमों से फिर हम जीत लेंगे जग ये तेरा- मेरा। इस पड़ाव में बन जीवन राही, आ हम भी तांके डूबते सूरज की परछाई।

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हो सके तो माफ़ी मुझसे नहीं अपनी माँ से मांगिए…

इकलौते बेटे से इतना बड़ा धोखा खा माँजी खुद को संभाल ना सकी और वही संध्या जैसी बहु की हालत की जिम्मेदार खुद को मानती।

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पता नहीं क्यों मैं सोचती बहुत हूँ…

सासु माँ से लेकर नाते रिश्तेदारों तक, भाई भतीजों से लेकर अपनी मित्रों तक, सबकी दिक़्क़त क्यों मुझे मेरी सी लगती हैं।

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मेरे बाबा, अब तुम नहीं मिलते…

उस गली के नुक्कड़ पर खड़े अब तुम नहीं मिलते। मेरे लिए अलग से चीजें लाने वाले और मुझे आँखों से ही समझाने वाले,अब तुम नहीं दिखते।

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सिर्फ भाभी ही नहीं, मैं भी कमाल की हूँ…

बच्चे अगर देर से सोकर उठते तो अनिला का यही कहना होता, "कावेरी भाभी ने अब तक सब को उठा कर नाश्ता भी करा दिया होगा।"

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