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तभी उनकी दोस्त नलिनी दूर से आती दिखी। उसको देखते ही माला जी ने एक प्यारी सी स्माइल पास करी। पर ये क्या नलिनी तो दूसरे ग्रुप में चली गई।
पर मेरा 'मैं' तो खत्म हो गया था तभी, जब तुमसे विवाह-बन्धन में बंधी थी किन्तु मैं 'बुद्ध' न बन पाई तब भी, मैं 'बुद्ध' न बन पाई...
जहां महिलाओं के साथ दुष्कर्म होते, जहां महिलाओं के साथ भेदभाव होते, जो है शिकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था की, वह जगह बड़ी दूर है।
पिता कैसे अपने कलेजे को छलनी होने से रोक पाएगा, ज्यादा कुछ नहीं बस वह अपनी बेटी के घर का मेहमान हो जाएगा, बाकी सब वैसा का वैसा ही तो रहेगा।
कह लो उसको चाहे उपहार या फिर कह लो दहेज, मत करो जेब ख़ाली सच यही है, मत करो ख्वाहिशें पूरी इसकी, बिन पैसे कैसे ब्याही जाएगी।
स्पर्श का अनुभव हम सभी किसी न किसी रुप में हर रोज अपने जीवन में करते है। उम्मीद है मेरी ये कविता आपके मन को कहीं न कहीं स्पर्श ज़रुर करेगी ।
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