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कथा और कविता
माँ तुम कितना झूठ बोलती हो…

अपने हिस्से का खाना भी बच्चों को खिलाकर, मेरी भूख मर गयी कहती हो। बच्चों को खाते देख कितनी तुम खुश होती हो, माँ तुम कितना झूठ बोलती हो।

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माँ, मुझसे भी ज्यादा शायद ईश्वर को थी तेरी ज़रुरत…

माँ, सबसे छोटा शब्द...माँ, सबसे छोटा शब्द लेकिन शब्दकोष में शायद शब्द ही कम पड़ जाएँ, पर माँ को बयाँ नहीं किया जा सकता।

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मालिक बनने की कोशिश की तो मुँह की खाओगे…

साथी हूँ बराबर की मुझे कमजोर ना तुम समझो, इक जिंदा इंसान हूँ मुझे कोई चीज़ ना तुम समझो, मालिक बनने की कोशिश न करना।

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मेरी यहां कुछ भी अहमियत नहीं है…

किसी को फर्क़ नहीं पड़ता, कि मुझे भी कुछ अच्छा लग सकता है। कितनी बार, कितनी बार अपनी इच्छाओं को मारा मैंने।

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अब आप माँ बन कर हमेशा हमारे साथ रहेंगी…

“आज सुबह सुबह मनोहर और ये हाथों में क्या छिपाया रखा है तूने?”  रत्ना के बार बार पूछने पे शरमाते हुए मनोहर ने हाथ आगे कर दिया। 

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आखिरी बार कह रही हूँ अब मुझे विदा दो…

अपनी आँखों के सपने तकिये पे सूखाकर, सबके लिए वो बनने की कोशिश करते हूँ जो मैं नहीं...और तुम्हें बस मेरा शरीर दिखता है, मेरा मन नहीं...

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