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कथा और कविता
अरे! कहीं बहू ने नौकरी तो नहीं छोड़ दी?

तुम घर की बहू हो, बेटी नहीं। तुम्हें जिम्मेदारियों का कोई एहसास है कि नहीं? रात के खाने का टाइम हो चुका है और तुम्हारा अता पता ही नहीं।

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तुम्हें अब अपनी ये चुप्पी तोड़नी ही होगी!

घुट-घुट कर मरना छोड़कर, चुप्पी को तोड़कर अपने हौसले बुलंद कर, व्यथा मैं अपनी सबको सुनाती, नारी शक्ति का नया अध्याय बनाती...

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मेरे ससुराल की सब रस्में मैगी खा कर पूरी हो गयीं…

बुआ सास ने कहा, "जब सास ही रस्म रिवाज नहीं निभाएगी, तो बहु क्या खाक रीति-रिवाजों को मानेगी? वो तो आज के जमाने की लड़की ठहरी।"

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विदा होकर भी कहाँ विदा हो पाती हैं बेटियाँ…

घर के किसी कोने में आज भी उनकी साइकल सजती है, त्योहारों में अब पहले सी शरारत कहाँ होती है, कहीं रूमाल तो कहीं हेयर क्लिप छोड़ जाती हैं बेटियाँ!

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और उसने परफ्यूम के साथ-साथ समय को भी सूंघना सीख लिया…

वह परफ्यूम की इतनी शौकीन रही है कि बहुत कीमती तथा आसानी से ना मिलने वाली सुगंध खरीद खरीद कर जमा करती रही।

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बहु, ईश्वर जल्दी तेरी गोद भरेंगे…

आजकल की लड़कियों के बड़े नखरे हैं, यह नहीं सोचती कि अगर बड़े कुछ कह रहे हैं तो भले के लिए ही कह रहे हैं। इन्हें तो बस अपनी ज़िद प्यारी है।

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