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समाज का दोगलापन आज भी मुझे समझ नहीं आता है, जो दिन में इज्ज़त की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वही रात के अन्धेरे में जिस्म का मोल भाव करते हैं।
मायके से विदा होते, माँ के गले लग उनकी आँख पोंछते, जब पीठ पर हल्की सी धौल जमा रुखाई से खुद को अलग करती हैं, तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!
अतीत से निकल, कड़वी यादें भुला कर, भविष्य छोड़, बस केवल आज में जीने लगी हूँ। थोड़ा सा इश्क खुद से भी करने लगी हूँ...
पर उसकी धूर्तता का कच्चा चिट्ठा उस सुबह खुला, जब हमारे पड़ोस में रहने वाली दीदी की सबसे अच्छी सहेली और ये, दोनों एक साथ गायब मिले।
मीरा का आत्मसम्मान तो शादी के कुछ महीनों बाद से ही छलनी होने लगा था पर वह अपनी बेटी के भविष्य लिए इतना सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी।
इंटरव्यू और तुम? तुम्हारे बस में है, इंटरव्यू देना? तुम क्या जानो नौकरी के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह सब तुम्हारे बस का नहीं है।
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