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कथा और कविता
मेरा हाथ बटाने में क्या तुम्हारा अपमान होता है…

क्यों कभी मेरा हाथ बटाने की पहल तुम खुद नहीं करते हो? जबकि  मैं अब बोझ नहीं हूँ तुम्हाराये तुम भी अब ख़ूब समझते हो...

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ये कर्तव्य की चाबियाँ हैं या एक कैद…

रसोई से शयनकक्ष तक, घुमाती रही, कर्तव्यों की चाबियां। लगाती रही ताले अपने आदतों, अरमानों पर, प्रगति के पायदानों पर...

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कभी-कभी मन होता है कि खुद के भी शौक पूरे करूँ…

नौकरी करने के बावजूद मेरे पास एक भी पैसा नहीं जो मैं अपनी मर्जी से खर्च कर सकूँ। हर छोटी-बड़ी बात के लिए पति से ही पैसे लेने पड़ते हैं।

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नए वर्ष में नई सुबह हो और नई पहल हो…

लिखूँ नए वर्ष में ऐसा, मेरी लेखनी की ताकत से रुढ़ी की जंजीरों में जकड़ी हर नारी की आवाज़ बनूँ, हर बेटी, बहन और माँ के जीवन में प्रकाश बनूँ।

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दूसरों की बीच मैं खुद को भूल गयी थी…

खुद की देखभाल में कमी और अपनी तरफ से लापरवाही का ही नतीजा आज शीशे में उसके अक्स के रूप में दिख रहा था। वो खुद को पहचान ही नहीं पायी...

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माँ मुझे वो सवेरा देखना है…

अभी वो दिन ले कर भी तो आना है, वो दिन नाना नानी, मामा से ना मिल पाएगा, ना समाज देगा, ना सरकार! वो तुम लाओगी माँ, तुम उठो!

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