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क्यों कभी मेरा हाथ बटाने की पहल तुम खुद नहीं करते हो? जबकि मैं अब बोझ नहीं हूँ तुम्हाराये तुम भी अब ख़ूब समझते हो...
रसोई से शयनकक्ष तक, घुमाती रही, कर्तव्यों की चाबियां। लगाती रही ताले अपने आदतों, अरमानों पर, प्रगति के पायदानों पर...
नौकरी करने के बावजूद मेरे पास एक भी पैसा नहीं जो मैं अपनी मर्जी से खर्च कर सकूँ। हर छोटी-बड़ी बात के लिए पति से ही पैसे लेने पड़ते हैं।
लिखूँ नए वर्ष में ऐसा, मेरी लेखनी की ताकत से रुढ़ी की जंजीरों में जकड़ी हर नारी की आवाज़ बनूँ, हर बेटी, बहन और माँ के जीवन में प्रकाश बनूँ।
खुद की देखभाल में कमी और अपनी तरफ से लापरवाही का ही नतीजा आज शीशे में उसके अक्स के रूप में दिख रहा था। वो खुद को पहचान ही नहीं पायी...
अभी वो दिन ले कर भी तो आना है, वो दिन नाना नानी, मामा से ना मिल पाएगा, ना समाज देगा, ना सरकार! वो तुम लाओगी माँ, तुम उठो!
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