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कथा और कविता
अब वही होगा जो मैं चाहूंगी…

वह अपनी जिंदगी की मालकिन खुद है कोई और नहीं। त्याग और तपस्या की बलिबेदी पर उसने बहुत कुछ खोया है। अब नहीं!

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सिर्फ ‘बड़े घर की बहु’ मेरी पहचान नहीं…

विदाई के बेला में अपने पापा के गले लग ज़ार ज़ार रोई वो। इतना कि सब के कलेजे काँप गए पर ये तो सिर्फ वो पिता ही समझ रहा था, कि ये आंसू...

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अब घर के सारे काम नई भाभी करेगी…

घर के हालात देख अनिमेष दंग रह गया। दोनों बहनें आराम से टीवी देख रही थीं। माँ शायद छत पे पड़ोसन से बातें कर रही थी और रिया...

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अब वो बदल चुकी थी और उसके रिश्तों के मायने भी…

बहु जो होना था हो गया। ये सब तो भगवान की मर्जी होती है। लगता है कि समधन जी के कर्मों की कमाई अच्छी नहीं थी जो पति और बेटा दोनो चले गए।

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अरे आपने इतना अच्छा रिश्ता छोड़ दिया…

मोहन जी आपकी बेटी ने इतना अच्छा रिश्ता तोड़ दिया और आप उसे डाँटने कि जगह पर आप प्यार से बात कर रहे हो...

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क्या सच में तुम कदम बाहर बढ़ा पाओगी? क्या तुम जी पाओगी?

'जो आज न बढ़ी तो कमज़ोर पड़ जाऊंगी, फिर माँ, दादी की तरह इस कुएं में तड़पती रह जाऊंगी', उस दिन मेरा अहम् जीता या उसका स्वाभिमान, नहीं जानता!

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