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कथा और कविता
एक भूली हुई माँ अपनी बात खुद कहने लगी तो…

ये स्वयं अपनी कविता में अपने संघर्ष के, व्यथित मन के गीत, कूंची से जीवन की रंग-बेरंग होती तस्वीर, लिखकर, गाकर, उकेरकर, लोगों को स्वयं ही दिखलाएँ?

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मुझे बराबरी नहीं बस साझेदारी चाहिए…

सिर्फ़ मुस्कान में ही नहीं, आंसुओं में भी चाहिए, सिर्फ़ मौज मस्ती में ही नहीं, ज़िम्मेदारियों में भी चाहिए, घोंसला साँझा है तो जिम्मेदारियाँ भी सांझी होनी चाहिए...

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काश लौट आए वो गुज़रा ज़माना…

न काम की चिंता, न घर की फिक्र, वो बारिश के पानी में नहाना, वो कागज़ की किश्ती चलाना, बहुत याद आता है गुज़रा ज़माना।

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चाहे बुढ़ापे में जाऊं लेकिन मैं हनीमून पर जाऊँगी ज़रूर…

उसका कितना मन था कि मंगनी के बाद दोनों की बातचीत शुरू हो जाए। मगर पवन ने ना तो बहन से नम्बर मंगवाया ना तो खुद चुपके से उसे फोन किया।

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अपने स्वाभिमान से समझौता करना नहीं सीखा मैंने…

स्त्री होना ही तेरा क़ुसूर है, ज़माने की इसी सोच से लड़कर जीना सीखा मैंने। हर वक्त लड़ी हूँ अपने अस्तित्व की खातिर लेकिन आज...

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क्यों समाज पुरूष के शादीशुदा होने पर नही मांगता कोई प्रमाण

औरत मांग में सिंदूर भरकर, अपने शादीशुदा होने का प्रमाण देती है। फिर समाज क्यों नही मांगता कोई, प्रमाण पुरूष के शादी शुदा होने पर।

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