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कथा और कविता
मोहे बिटिया न कीजो… कोई मर्द समझ पाया क्या?

अगली बार मुझे लाल, हरा, भगवा, नीले रंग का परचम बना देना, अक्सर लोगों के खून में उबाल आ जाता है, पड़े किसी की भी इन पर गलती से भी जो निगाह मैली!

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अब ये मेरी नकचढ़ी बहू नहीं लाडली बहू है…

दूसरे दिन बारह बजने को आए पर बहू का कोई अता-पता नहीं! आज तो रसोई की रस्म थी! सुप्रिया जी लोगों के बीच छिपते-छुपाते बहू के कमरे में गईं।

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काग़ज़ के रावण बहुत जलाए कब मन के रावण फूँकोगे…

इन प्रश्नों के उत्तर लेने हर वर्ष मैं आता हूँ, एक दुष्कर्म की सजा आज तक पाता हूँ, पर धरती पर चहुँ ओर कितने ही रावण पाता हूँ, सीता से भी बुरी दशा में लाखों को मैं पाता हूँ।

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अपने अंदर के रावण को अब स्वयं जलाना है…

तुमने मर्द बनकर कौन सा नाम कमाया है? शोषण करके स्त्री का मुंह बस दबाया है, बस अपने घमंड को ऊंचा रखने खातिर, रावण का तुमने पुतला जलाया है!

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माँजी, बहुएं काम करने की मशीन नहीं होतीं हैं…

"दरअसल गलती इनकी भी नहीं। इनको इनके माता-पिता पढ़ा लिखाकर आत्मनिर्भर तो बना देते हैं, लेकिन संस्कार देना और घर के काम सीखाना भूल जाते हैं।"

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तुम मुझे रोज़ ऐसी बातें सुनाया करते हो…

अरे! अरे! अरे! ठीक से बैठो, थोड़ा कम बोलो, मोटी हो गयी हो...कौन करेगा तुमसे शादी?कुछ ऐसी ही बातें तुम मुझे हर रोज़ सुनाया करते हो...

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