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माँ की जुबानी
मम्मी, आपकी चिट्ठी आयी है…

और वो मटमैले रंग वाला पोस्टकार्ड। कुछ मन की बात लिखते नहीं बनता था। मैं तो डाकिए की नियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती, "आपने पढ़ा तो नहीं न?"

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आज से आपके सपने हैं मेरे अपने…

शादी के बाद पर्व त्यौहार, बच्ची का होना, इसका पालन पोषण कुछ भी मैं इंजोय नहीं कर पाई, अपनी नौकरी के दवाब में, इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी...

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बचपन से लेकर पचपन तक सीटी की बदलती आवाज…

रसोई घर की सीटी बजते हुए सुनकर मन में यह भाव आया, हाय राम कब यह मेरी जान छोड़ेगी! सीटी की आवाज, बचपन से लेकर पचपन की उम्र तक...

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माँ, तुम माँ के अलावा एक इंसान भी हो…

बातें हुई, उनकी गहराई से पता चला कि उनकी इच्छाएं, शौक़, परेशानियां कहीं सतह से बहुत नीचे दबी हैं, हम सब ने मिल कर दफ्न कर दिया था उनके मन को।

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अब 40 की उम्र में भी तुम लोरी सुनोगी?

मेरी उत्सुकता भी बढ़ गई, “हाँ माँ बताओ ना, मैं कौन सी लोरी सुनती थी?” माँ ने झिड़कते हुए कहा, “अब 40 की उम्र में तुम लोरी सुनोगी?”

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माँ, आप फिर वही साड़ी पहन कर आ गयीं…

"माँ सही कहती हैं कि जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाने चाहिए। और तुम बुआ जी की बातों पर ध्यान मत दो।" साहिल की इस बात से सब सहमत थे। 

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